गाँवों में ज़मीन विवाद: आपसी भाईचारे पर पड़ती दरार
रामबिलास लांगड़ी, प्रबंध सम्पादक दैनिक सच्चा सागर टोंक
आजकल ग्रामीण भारत में ज़मीन से जुड़े विवाद एक आम दृश्य बनते जा रहे हैं। दिन प्रतिदिन किसी न किसी गाँव में दो पक्षों के बीच ज़मीन को लेकर झगड़े, मारपीट, और यहां तक कि खून-खराबा तक हो रहा है। यह दुखद है कि जो गाँव कभी आपसी प्रेम, सहयोग और भाईचारे के प्रतीक माने जाते थे, अब वहीं लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे होते जा रहे हैं।इन विवादों की जड़ में मुख्यतः राजस्व मामलों की उपेक्षा और लंबी न्यायिक प्रक्रिया है। सरकार इन मामलों के प्रति न तो सजग है, न ही संवेदनशील। एक ज़मीन विवाद के निस्तारण में वर्षों निकल जाते हैं, और किसान परिवार न्याय की आस में समय, धन और मानसिक शांति खोते चले जाते हैं। अफसरशाही, भ्रष्टाचार और लालफीताशाही की जटिलताओं में गरीब किसान पिसता चला जाता है।इस सबका प्रभाव केवल आर्थिक नहीं होता सामाजिक ताने-बाने पर भी इसका गहरा आघात होता है। आपसी रिश्तों में कटुता बढ़ती है, पड़ोसी दुश्मन बनते हैं, और पूरे गाँव का माहौल अशांत हो जाता है। कई बार यही झगड़े भविष्य में पीढ़ियों तक दुश्मनी का कारण बन जाते हैं।जिन पढ़े-लिखे युवाओं के कंधों पर देश और गाँव की तरक्की की उम्मीद थी, वे अब कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाते हुए, पारिवारिक झगड़ों में उलझ कर रह जाते हैं। उनकी ऊर्जा, प्रतिभा और समय बर्बाद हो जाता है, जिससे गाँव की सामाजिक और आर्थिक उन्नति रुक जाती है।इस समस्या के समाधान के लिए ज़रूरी है कि राजस्व और ज़मीन संबंधी मामलों में तेज़ और निष्पक्ष सुनवाई हो।सरकार गाँव स्तर पर ज़मीन विवाद समाधान समितियाँ बनाए, जिनमें पंचायत, पटवारी और ग्रामीण बुद्धिजीवी शामिल हों।पढ़े-लिखे युवाओं को मध्यस्थता और कानून की बुनियादी जानकारी दी जाए, जिससे वे ऐसे मामलों को सुलझाने में सकारात्मक भूमिका निभा सकें।आपसी संवाद और पंचायत स्तर पर पुनः भाईचारे को बढ़ावा देने के प्रयास हों।अगर समय रहते यह चेतावनी नहीं ली गई, तो यह समस्या और भयावह रूप ले सकती है।