(सुरेश बुन्देल)
टोंक (सच्चा सागर) एक वक्त ऐसा आता है, जब संगदिल जमाना उन कलाकारों को बड़ी बेरूखी से भुला देता है, जो अपने दौर के माहिर- ए- फन रहे हों। आम धारणा के मुताबिक ज्यादातर कलाकारों, क्रिकेटरों और पहलवानों का बुढ़ापा खराब होता है। आज की कड़ी में जिक्र है, रियासतकालीन राजगायक फैयाज हुसैन रागी साहब का। जो पिछले साल दुनिया- ऐ- फानी को अलविदा कह चुके हैं। हालांकि रागी साहब अपनी जिन्दगी के आखिरी पड़ाव पर मुफलिसी से मुब्तला नजर आए और अपने आप से मायूस भी। प्राचीन काल से ही भारत में संगीत की समृद्ध परम्परा रही है। शास्त्रीय संगीत को ही संगीत की आत्मा माना जाता है। टोंक रियासत के सभी नवाबों ने अपने दौर में संगीत और संगीतज्ञों को खासी अहमियत दी। अन्तिम तीन नवाबों के शासन काल में ‘राज गायक’ की उपाधि हासिल करने वाले फैयाज हुसैन ‘रागी’ उम्र के अंतिम दौर में लकवाग्रस्त होकर अपनी बीमारी से जूझे, नतीजन जीवन की शतकीय पारी खेलने के बाद उनकी आवाज सदा- सदा के लिए खामोश हो गई। आज भी तालकटोरे के टीनशेड वाले रागी साहब के उनकी पुरानी यादे जिन्दा हैं।
रागी साहब की फनकारी के मुरीद रहे टोंक नवाब
सन 1915 में टोंक के ही रहने वाले मशहूर सारंगी वादक उस्ताद तान मोहम्मद खां के घर में पैदा होने वाले फैयाज हुसैन को बचपन से ही संगीत से लगाव रहा। रागी ने हिन्दुस्तानी संगीत के प्रसिद्ध मेवात घराने के उस्ताद भुन्दु अली खां से गायन और वादन की तालीम बाकायदा हासिल की। उनकी काबिलियत और गायिकी से प्रभावित होकर टोंक रियासत के पांचवें नवाब मोहम्मद सआदत अली खां ने उन्हें ‘संगीत रत्न’ का खिताब देते हुए राज गायक की उपाधि प्रदान की। इसके बाद छठे नवाब के तौर पर मसनदनशीं हुए मोहम्मद फारूख अली खां ने रागी की संगीत सेवाओं को देखते हुए उन्हें ‘संगीते- आजम’ और ‘सर से लेकर पांव तक संगीत’ करार दिया। सातवें व अन्तिम नवाब मोहम्मद इस्माईल अली खां ने भी उन्हें ‘संगीत का बादशाह’ नामक खिताब दिया। 1952 में मुम्बई संगीत समिति द्वारा उन्हें ‘रागी’ के खिताब से नवाजा गया, वही खिताब उनका तखल्लुस भी बना। उनकी आला दर्जे की मौसीकी से मुत्तासिर होकर 1968 में मैसूर के महाराजा ने भी सम्मानित किया। 1985- 86 में एपीआरआई के प्रोग्राम में शिरकत फरमा रहे ईरान के सफीर (राजदूत) ने भी रागी साहब को ईरान आने की दावत दी। संगीत के गूढ़ जानकार फैयाज हुसैन को शास्त्रीय संगीत का मुकम्मल गायक व संगीतकार मानते हैं। संगीत में प्रचलित प्रणाली ठुमरी, दादरा, धमार, ख्याल, गजल, गीत, मांड, टप्पा, तराना, कव्वाली और भजनों में रागी को खूब महारत हासिल थी। हुसैन द्वारा गाया गया राग मालकोश का प्रसिद्ध गीत ‘देख आयो चैन, पिया को देखन चली मैं।’ उस वक्त लोग बार- बार सुना करते थे। आधुनिक युग में शास्त्रीय संगीत का प्रचलन कम होने लगा है। सुनने वालों की तादाद में भी कमी आई है। रागी साहब का जलवा एक समय में देखते ही बनता था। हर खास और आम लोग उनकी गायिकी के दीवाने थे। रागी साहब ने अपने सैंकड़ों शिष्यों को हारमोनियम बजाना और गाना सिखाया।
वजीफे के अलवा नहीं मिली सरकार से पर्याप्त मदद
रियासत काल में रागी साहब का रूतबा बतौर राज गायक हमेशा कायम रहा। जिस कदर जिन्दगी के आखिरी सालों में रागी साहब को लकवाग्रस्त व अभावग्रस्त होकर बदहाल जीवन जीना पड़ा, उस पर सिर्फ अफसोस किया जा सकता है। संगदिल जमाने ने ना तो इनके फन की कद्र की और ना ही कभी सुध लेने की जहमत उठाई। जीवित रहते हुए प्रशासनिक तौर पर भी किसी तरह का मान- सम्मान ना मिला और ना ही किसी प्रकार की खास सहायता। उनके जीते जी किसी स्वयंसेवी या कला संगठन ने भी संगीत की इस बेहद काबिल शख्सियत की इमदाद करने की कोशिश नहीं की। एक उम्मीद का चिराग मीडिया की जानिब से रोशन हो सकता था मगर ना तो उनके पास कोई खबरनवीस कलम लेकर पहुंचा और ना ही कोई कैमरामैन। उनके तालकटोरे वाले टूटे- फूटे घर में आज भी रागी साहब का बेटे- बहुओं व पोते- पोतियों वाला भरा- पूरा परिवार अपना जीवन व्यतीत कर रहा है।
