मिट्टी के दीपक बनाने को चाक ने पकड़ी रफ्तार

 


लोकेश कुमार गुप्ता



चाकसू(सच्चा सागर )दीपावली पर धन लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए मिट्टी के दीपक बनाने वाले कुम्हारों के चाक ने गति पकड़ ली है। उन्हें इस बार अच्छी बिक्री की उम्मीद है। गांव  में स्थित कुम्हारों की बस्ती में उनके परिवार मिट्टी का सामान तैयार करने में व्यस्त हैं। चाकसू कस्बे के  वार्ड नं 10 सत्यनारायण प्रजापति, अनोखी देवी ,विरेन्दर प्रजापति  का परिवार जो कि राजस्थान के मूल निवासी हैं, इस काम के लिए 20 सालों से लगे हुए हैं। उन्होंने बताया कि मिट्टी के दीपक, मटकी आदि बनाने के लिए माता-पिता के साथ उनके बच्चे भी हाथ बंटा रहे हैं। कोई मिट्टी गूंथने में लगा है तो किसी के हाथ चाक पर मिट्टी के बर्तनों को आकार दे रहे हैं। महिलाओं को आवा जलाने व पके हुए बर्तनों को व्यवस्थित रखने का जिम्मा सौंपा गया है। इसके साथ ही महिलाएं रंग बिरंगे रंगों से बर्तनों को सजाने में जुटी हैं।दीपावली पर्व पर धन लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए मिट्टी के दीपक जलाए जाते हैं। मिट्टी से निर्मित चार, छह, बारह एवं चौबीस दीपों वाली मिट्टी की ग्वालिन की पूजा की जाती है।  सत्यनारायण प्रजापति  का  परिवार मिंट्टी के दीपक के अलावा अन्य सामान तैयार कर रहे हैं। विरेन्द्र प्रजापति    बताते हैं कि इसबार उम्मीद है कि कुछ ज्यादा दीपक की बिक्री हो क्योंकि चाइना के बने सामना का लोग विरोध कर रहे हैं। पिछले साल करीब बीस  हजार दीपक व मिट्टी के अन्य सामग्री बेची थी इस बार उम्मीद है कि पचास हजार से साठ हजार तक मिंट्टी के दीपक की बिक्री हो। उन्होंने बताया कि अब इस कार्य में अधिक फायदा नहीं है क्योंकि महंगाई बढ़ती जा रही है। लोगों को लगता है कि पहले की तरह की दीपक के दाम हो यह एक बड़ी समस्या है।


चाक से बनती हैं कई चीजें



सत्यनारायण  प्रजापत बताते हैं कि करीब आठ से दस हजार रुपए में आने वाला चाक का पहिया बड़ी मेहनत से पत्थर के कारीगरों द्वारा तैयार किया जाता है। इस पर सारे मिट्टी के बर्तन बनाए जाते हैं। दीपक, घड़ा, मलिया, करवा, गमला, गुल्लक, गगरी, मटकी, नाद, देवी देवता, कनारी, बच्चों की चक्की सहित अन्य उपकरण बनाए जाते हैं। कुम्हारों ने बताया कि चाक का पानी व मिट्टी औषधि का काम करती है। सांप के काटने पर इस मटमैले पानी को लगाने से विष खत्म हो जाता है।


मिंट्टी का सामान बनाने वालों पर धन लक्ष्मी मेहरबान नही


मिट्टी गढ़कर उसे आकार देने वालों पर शायद धन लक्ष्मी मेहरबान नहीं है, जिसके चलते अनेक परिवार अपने परंपरागत धंधे से विमुख होते जा रहे हैं। दीपावली पर मिट्टी का सामान तैयार करना उनके लिए सीजनेबल धंधा बनकर रह गया है। हालात यह है कि यदि वे दूसरा धंधा नहीं करेंगे तो दो जून की रोटी जुटा पाना कठिन हो जाएगा। कुम्हारों का कहना है कि दीपावली व गर्मी के सीजन में मिट्टी से निर्मित बर्तनों की मांग जरूर बढ़ जाती है, लेकिन बाद के दिनों में वे मजदूरी करके ही परिवार का पेट पालते हैं।

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